आपके शहर से गुजरता मजदूर किसी सरकार नहीं, शायद हमारे भरोसे के इंतजार में ही बैठा हो.
धूप, गर्मी, लंबी सड़कें और अन्तहीन लगने वाला सफर। लॉकडाउन में मजदूरों के पलायन का यह सबसे करुण दृश्य है। इस सफर में भूख, प्यास और जिंदा रहने की उम्मीद शामिल है। ये सब वही मजदूर हैं, जो अपना पेट पालने के लिए अपना गांव और घर छोड़कर शहर गए थे। लेकिन, घर वापसी के इस सफर में उन्हें पैसा नहीं चाहिए, धन नहीं चाहिए, बल्कि घर लौटने की अपनी इस जीवटता को जिंदा रखने के लिए मदद चाहिए, हौसला चाहिए।
क्योंकि एक तरफ उस गरीब मजदूर के सफर का संघर्ष है और दूसरी तरफ उस सफर और उसके यात्री को जिंदा रखने के लिए परोपकार की गाथा भी नजर आ रही है।
इंदौर, इस सफर के यात्रियों के सूखे गले की प्यास बुझा रहा है, कोई गरमा-गर्म रोटियां, पूरी बनाकर प्रेम से खिला रहा है, तो कोई उनके पैरों को धूप के अंगारों से झुलसने से बचाने के लिए जूते और चप्पल भी पहना रहा है। कोई सिर को छांव से ढकने के लिए उन्हें कैप दे रहा है तो कोई छोटे मासूम बच्चों को गमछों से लपेट रहा है।
इंदौर में डॉक्टरों की टीम पर हमला करने और थूकने की जो तस्वीर देश ने अब तक देखी थी, दअरसल वो बहके हुए, भटके हुए कुछ लोगों की तस्वीर थी। इंदौर की असल तासीर तो अब बायपास पर मजदूरों की इस करुण गाथा पर आंसू बहाते और उनकी मदद करते नजर आ रही है। यही है इंदौर के परोपकार की असली तस्वीर।
मदद और परोपकार की इस तस्वीर को फलक पर और बड़ा और विस्तृत करना होगा। इतना बड़ा कि वो देश के किसी भी कोने से नजर आ जाए।
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